जीवन

जीवन की शुरुआत 60 के बाद, योग से करें इसकी शुरुआत : योग गुरु महेश अग्रवाल

बैंक ऑफ बड़ौदा अकादमी द्वारा योग प्रशिक्षण शिविर का आयोजन, प्राणायाम करने से नाड़ी, मस्तिष्क और शरीर एक-दूसरे का करते हैं सहयोग,

भोपाल । बैंक ऑफ बड़ौदा अकादमी द्वारा सेवा निवृत होने वाले स्टाफ सदस्यों के लिए योग प्रशिक्षण शिविर जीवन की शुरआत 60 के बाद का आयोजन किया गया। इस मौके पर योग गुरु महेश अग्रवाल ने योग प्रशिक्षण दिया। कार्यक्रम के दौरान मुख्य प्रबंधक जयप्रकाश प्रधान ने कहा कि किसी भी कार्य क्षेत्र में मनुष्य की प्रगति के लिए न केवल उसको शारीरिक रुप से स्वस्थ होना चाहिए, बल्कि उसका मानसिक रुप से स्वस्थ होना भी अनिवार्य है। इस अवसर पर पूरे  मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ से बैंक के सेवा निवृत होने वाले अधिकारी एवं कर्मचारी के साथ वरिष्ठ प्रबंधक कैलाश भगतानी, गौरव मिश्रा, अनुराग बाला उपस्थित रहें। 



योग सुख और आनंद को पूर्ण बनाने का पथ है

योग गुरु महेश अग्रवाल ने योग आसन एवं प्राणायाम का अभ्यास का प्रशिक्षण देते हुए बताया कि योग वास्तव में कष्टपूर्ण मार्ग नहीं है, हमने इसे उचित परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा है। योग तो सुख और आनंद को पूर्ण बनाने का पथ है। योग का लक्ष्य है समाधि। ध्यान का प्रभाव होता है शांति। धारणा का प्रभाव है एकाग्रता। प्राणायाम का परिणाम होता है उन्नत मस्तिष्क। आसनों का प्रभाव है स्फूर्तिवान स्वस्थ शरीर। नियम का  परिणाम होता है जीवन की शैली अथवा विज्ञान। यम का प्रभाव होता है जिंदगी की गुत्थियों को सुलझाना। योग की एक ही परिभाषा है। योग का अर्थ है- चित्त की विभिन्न वृत्तियों को नियंत्रित रखने में समर्थ होना।

योग के अभ्यास चार मुख्य भागों में विभाजित हैं

कर्म योग, भक्ति योग, राज योग और ज्ञान योग। चंचल स्वभाव वालों के लिये कर्म योग उपयुक्त है। भावुक प्रकृति वालों के लिये भक्ति योग ठीक है। बुद्धिजीवियों के लिये ज्ञान योग है और आत्मिक वृत्ति वालों को राज योग अनुकूल होता है।

 योग अभ्यास में सभी अंगों का समावेश करना चाहिये, क्योंकि तुम कर्म किये बिना रह नहीं सकते। तुम्हें कार्य करना होगा और अपने कर्तव्यों को हमेशा निभाना होगा । अगर कर्मयोग का अभ्यास नहीं करोगे तो कुण्ठाओं का अनुभव होगा, निराशा आएगी और जीवन में उनकी प्रतिक्रियाएं होंगी। अगर भक्ति योग का अभ्यास नहीं करोगे तो मनोविकार बढ़ते जाएंगे। अगर तुम राज योग का अभ्यास नहीं करोगे तो तुम्हारा मन पियक्कड़ बंदर की तरह उछल-कूद करेगा और अगर ज्ञान योग का अभ्यास नहीं करोगे तो यही नहीं जान पाओगे कि ये अभ्यास तुम कर क्यों रहे हो और हठ योग का अभ्यास न करने पर तो अन्य कोई अभ्यास तुम शायद कर ही नहीं पाओगे।

योग गुरु अग्रवाल नें बताया कि महर्षि पतंजलि का कथन है कि जो योगाभ्यास करना चाहते हैं उन्हें अभ्यास और वैराग्य का अनुपालन करना चाहिए। विविध परिस्थितियों में नियमित और निरंतर व्यवस्थित रूप से वैराग्य और अभ्यास का अनुसरण। उन्होंने ध्यान का भाव और समाधि की अनुभूति प्राप्त करने के लिए मार्ग बताए हैं। उन्होंने ध्यान की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत कर ध्यान के पूर्व की तैयारी बताई है। ये योग के आठ कदम हैं। इसलिए पतंजलि का राजयोग भी अष्टांग योग कहलाता है। पहले चार कदम बाह्य अभ्यास के और दूसरे चार कदम आंतरिक अभ्यास के हैं।

ये आठ कदम कौन-कौन से हैं?

1. यम-अनुशासन 2. नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार (इन्द्रियों को समेटना) 6. धारणा 7. ध्यान और 8. समाधि। समाधि के ये आठ चरण हैं। प्रथम चार चरण बाह्य तैयारियों के लिए हैं। 

यम क्या है?

यह आत्मानुशासन है। पांच यम हैं 1. सत्य 2. अहिंसा 3. ब्रह्मचर्य 4. अस्तेय और 5. अपरिग्रह - ये पांच आत्मानुशासन हैं जिन्हें अपनी स्थिति और संभवता के अनुसार अभ्यास में उतारना है। इन अनुशासनों के साथ ही कुछ नियमितताओं का भी पालन करना है। नियम भी पांच हैं।

तीसरा कदम आसन है। ये साधारण आसन नहीं हैं, ध्यान के आसन हैं। पद्मासन, सिद्धासन इसी कोटि के आसन हैं। इन आसनों में शरीर सीधा और मेरुदण्ड तना रहता है। इससे शरीर के भीतर का शक्ति-प्रवाह अबाध चलता है और सम्पूर्ण शरीर संस्थान में शिथिलता (तनाव मुक्ति) रहती है। यह आसन कहलाता है।

चौथा कदम प्राणायाम है। इसका अर्थ है प्राणिक शक्ति को शरीर के प्रत्येक भाग में भरना। प्राणायाम कई प्रकार के हैं जिनके द्वारा यह कार्य सम्पन्न कराया जाता है। प्राणायाम करने से नाड़ी-संस्थान, मस्तिष्क और शरीर-संस्थान के अन्य अवयव एक-दूसरे से सहयोग करने लग जाते हैं, क्योंकि कई दफे ध्यान के अभ्यास का उपक्रम करने पर शरीर साथ नहीं देता है। शरीर में अशुद्धि रहने पर प्राणों का प्रवाह शिथिल हो जाता है। इसलिए इन चार कदमों का समाधि में प्रवेश के लिए बड़ा महत्त्व है।

अगले चार कदम इस प्रकार हैं प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। प्रत्याहार में इन्द्रियों के माध्यम से होने वाले अनुभवों को समेटते हैं। प्रत्येक इन्द्रिय से कुछ-न-कुछ अनुभव प्राप्त होता है। रूप, शब्द, रस, स्पर्श और गंध इंद्रियानुभव हैं। प्रत्याहार में हम इन इन्द्रियजन्य अनुभवों से विरति करते हैं।

यह कैसे होता है

मंत्राभ्यास, कीर्तन और अन्य विधियों से। किसी प्रकाश, ध्वनि, विचार, भाव-विशेष, किसी संत, किसी दिव्य पुरुष पर मन को एकाग्र कर प्रत्याहार किया जा सकता है।

किसी विशेष वस्तु पर मन को टिकाने से क्या होता है

इससे कुछ समय के लिए मनस्ताप मिट जाता है। जब एकाग्रता गहराती है तब अहंकार से हमारा सम्पर्क टूट जाता है। योग में यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। 'राजयोग सूत्र' में इसे संयम कहते हैं। जब एकाग्रता और ध्यान बिना प्रयास एकाएक घटित होते हैं तो इस अवस्था को संयम कहते हैं।

इस संयम का प्रतिफल क्या है

इन्द्रियातीत शक्तियां पंतजलि का कथन है कि संयम की महाक्षमता प्राप्त करने पर आप पदार्थ, घटना, विचार-प्रक्रिया आदि को प्रभावित कर सकते हैं। इतना ही नहीं, आप प्रक्रिया से अवगत हों तो प्रकृति के नियमों को भी प्रभावित कर सकते हैं। इस निष्पत्ति को योग में विभूति अथवा सिद्धि कहते हैं। दूर-श्रवण, दूरदर्शन, सम्मोहन एक प्रकार की सिद्धि है। इसी प्रकार अष्ट सिद्धियों भी हैं। ये आठ प्रकार की सिद्धियां मानसिक शक्तियों की पूर्णता की द्योतक हैं।

मानसिक शक्तियां जब विभाजित होकर बिखर जाती हैं तो वे शक्तिहीन हो जाती हैं। जब मानसिक शक्ति विभाजित होकर नहीं बिखरती और एकीभूत होकर एक दिशा में कार्यरत हो जाती हैं तो वह बड़ी शक्ति बन जाती है और वह घटनाओं को प्रभावित कर सकती है। 

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